जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना !
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना , अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाये |
नयी ज्योति के धर नए पंख झिलमिल , उड़े मत्र्य मिटटी गगन स्वर्ग छू ले ,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी , निशा की गली में तिमिर राह भूले ,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग , उषा जा न पाये , निशा आ न पाये
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना, अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाये |
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में , कहीं भी किसी द्वार है उदासी ,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी , कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी ,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही ,भले ही दिवाली यहाँ रोज आये ,
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना , अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाये |
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में , नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा ,
उतर क्यों न आये नखत सब नयन के , नहीं सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
काटेंगे तभी यह अँधेरे घिरे अब , स्वयं धर मनुज दीप का रूप आये ,
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना , अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाये |
-पदमश्री गोपालदास "नीरज " द्वारा रचित
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