गुरुवार, 10 मई 2018

रबीन्द्रनाथ टैगोर


 रबीन्द्रनाथ टैगोर
जब कभी भी भारतीय साहित्य के इतिहास की चर्चा होगी तो वह गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर  के नाम के बिना अधूरी ही रहेगी। रबीन्द्रनाथ टैगोर एक विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार तथा चित्रकार थे। भारतीय साहित्य गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर के योगदान के लिए सदैव उनका ऋणी रहेगा। वे अकेले ऐसे भारतीय साहित्यकार हैं जिन्हें नोबेल पुरस्कार मिला है। वह नोबेल पुरस्कार पाने वाले प्रथम एशियाई और साहित्य में नोबेल पाने वाले पहले गैर यूरोपीय भी थे।वह दुनिया के अकेले ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान हैं – भारत का राष्ट्र-गान ‘जन गण मन’ और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान ‘आमार सोनार बाँग्ला’ रबीन्द्रनाथ टैगोर की ही रचनाएँ हैं। गुरुदेव एवं कविगुरु, रबीन्द्रनाथ टैगोर के उपनाम थे। इन्हें रबीन्द्रनाथ ठाकुर के नाम से भी जाना जाता है।

रबीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 May 1861 को कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में एक अमीर बंगाली परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम देवेंद्रनाथ टैगोर और माता का नाम शारदा देवी था। उनकी प्रारम्भिक पढ़ाई सेंट ज़ेवियर स्कूल में हुई। वे वकील बनने की इच्छा से 1878 ई. में लंदन गए, लेकिन वहाँ से पढ़ाई पूरी किए बिना हीं 1880 ई. में वापस लौट आए।टैगोर बचपन से हीं बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। रबीन्द्रनाथ टैगोर की बाल्यकाल से कविताएं और कहानियाँ लिखने में रुचि थी।  उन्होंने अपनी पहली कविता 8 साल की छोटी आयु में हीं लिख डाली थी 1877 में केवल सोलह साल की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी। टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की है। रबीन्द्रनाथ  संगीत, बाँग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग है।लन्दन से वापस आने के पश्चात वर्ष 1883 में उनका विवाह मृणालिनी देवी से हुआ। इंग्लैंड से वापस आने और अपनी शादी के बाद से लेकर सन 1901 तक का अधिकांश समय रबीन्द्रनाथ ने सिआल्दा जो अब बांग्लादेश में  है, स्थित अपने परिवार की जागीर में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ बिताया। यहाँ उन्होंने ने ग्रामीण एवं गरीब जीवन को बहुत पास से देखा। इस बीच तक उन्होंने ग्रामीण बंगाल के पृष्ठभूमि पर आधारित कई लघु कथाएँ लिखीं एवं स्वयं को एक विख्यात साहित्यकार के रूप में स्थापित कर लिया था।
रबीन्द्रनाथ टैगोर बचपन से ही प्रकृति प्रेमी थे। वह हमेशा सोचा करते थे कि प्रकृति के सानिध्य में ही विद्यार्थियों को अध्ययन करना चाहिए। इसी सोच को मूर्तरूप देने के लिए वह 1901 में वह शान्तिनिकेतन आ गए। प्रकृति के सान्निध्य में पेड़ों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शान्तिनिकेतन की स्थापना की। यह रबीन्द्रनाथ के अथक प्रयासों का ही नतीजा था कि उनके द्वारा स्थापित शान्तिनिकेतन 1921 ई. में विश्वभारती नामक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के रूप में ख्यातिप्राप्त हुआ। यह साहित्य, संगीत और कला की शिक्षा के क्षेत्र में पूरे देश में एक आदर्श विश्वविद्यालय के रूप में पहचाना जाता है।  देश के कई प्रमुख व्यक्तियों ने यहाँ से अपनी शिक्षा प्राप्त किया है। साहित्य की शायद ही ऐसी कोई विधा हो, जिनमें उनकी रचना न हो कविता, गान, कथा, उपन्यास, नाटक, प्रबन्ध, शिल्पकला सभी विधाओं में उन्होंने रचना की है। उनकी कृतियों में – गीतांजली, गीताली, गीतिमाल्य, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष,, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका,  खेला और क्षणिका आदि शामिल हैं क़ाबुलीवाला, मास्टर साहब और पोस्टमास्टरउनकी कुछ प्रमुख प्रसिद्ध कहानियाँ है। उन्होंने कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की है गुरुदेव रवीन्द्रनाथ की सबसे लोकप्रिय रचना ‘गीतांजलि’ रही जिसके लिए 1913 में उन्हें नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। गीतांजलि लोगों को बहुत पसंद आई. गीतांजली का अंग्रेज़ी, जर्मन, फ्रैंच, जापानी, रूसी आदि विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में इसका अनुवाद किया गया।  टैगोर का नाम दुनिया के कोने-कोने में फ़ैल गया और वे विश्व – मंच पर स्थापित हो गये। रबीन्द्रनाथ टैगोर के कार्यो को देखकर अंग्रेज सरकार ने 1915 ई. में उन्हें सर की उपाधि से समानित किया।
अपने जीवन में उन्होंने कई देशों की यात्रा किया. आइंस्टाइन जैसे महान वैज्ञानिक, रवीन्द्रनाथ टैगोर को ‘‘रब्बी टैगोर’’ के नाम से पुकारते थे। आइंस्टाइन , रबीन्द्रनाथ के प्रसंशक थे। यहूदी धर्म एवं हिब्रू भाषा में ‘‘रब्बी’’ का अर्थ “गुरू’’ अथवा “मेरे गुरु” होता है। 1919 में हुए जलियाँवालाबाग हत्याकांड की टैगोर ने जमकर निंदा की और इसके विरोध में उन्होंने अपना “सर” का ख़िताब लौटा दिया।
  रबीन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु लम्बी बीमारी के कारण 7 अगस्त 1941 को कोलकाता में हुई। रबीन्द्रनाथ टैगोर भारत के उन महान विभुतिओं में से एक है जिनका नाम सदैव सुनहरे अक्षरों में हमारे मन मस्तिष्क पर अंकित रहेगा। वे भारत के अनमोल रत्नों में से एक थे। प्रस्तुत लेखन के द्वारा मैंने गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर के जीवन वृतांत को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। यह मेरी तरफ से कविगुरु को श्रधांजलि है। आप जैसे महापुरुष को शत्- शत् नमन है।

महाराणा प्रताप सिंह

महाराणा प्रताप सिंह:एक महाप्रतापी वीर योद्धा की  जीवनी
महाराणा प्रताप सिंह ( ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया रविवार विक्रम संवत १५९७ तदानुसार ९ मई १५४०–१९ जनवरी १५९७) उदयपुरमेवाड में सिसोदिया राजवंश के राजा थे। उनका नाम इतिहास में वीरता और दृढ प्रण के लिये अमर है। उन्होंने कई सालों तक मुगल सम्राट अकबर के साथ संघर्ष किया। महाराणा प्रताप सिंह ने मुगलों को कईं बार युद्ध में भी हराया। उनका जन्म राजस्थान के कुम्भलगढ़ में महाराणा उदयसिंह एवं माता राणी जयवंत कँवर के घर हुआ था। १५७६ के हल्दीघाटी युद्ध में २०,००० राजपूतों को साथ लेकर राणा प्रताप ने मुगल सरदार राजा मानसिंह के ८०,००० की सेना का सामना किया। शत्रु सेना से घिर चुके महाराणा प्रताप को झाला मानसिंह ने आपने प्राण दे कर बचाया ओर महाराणा को युद्ध भूमि छोड़ने के लिए बोला। शक्ति सिंह ने आपना अश्व दे कर महाराणा को बचाया। प्रिय अश्व चेतक की भी मृत्यु हुई। यह युद्ध तो केवल एक दिन चला परन्तु इसमें १७,००० लोग मारे गए। मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने सभी प्रयास किये। महाराणा की हालत दिन-प्रतिदिन चिंताजनक होती चली गई । २५,००० राजपूतों को १२ साल तक चले उतना अनुदान देकर भामा शाह भी अमर हुआ।
एक नजर :महाराणा प्रताप  का  जीवन काल 

 शासन       १५७२ -१५९७ 



राज तिलक२८ फ़रवरी १५७२
पूरा नाममहाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया
पूर्वाधिकारीउदयसिंह द्वितीय
उत्तराधिकारीमहाराणा अमर सिंह
जीवन संगी(11 पत्नियाँ)
संतान
अमर सिंह

भगवान दास

(17 पुत्र)
राज घरानासिसोदिया
पिताउदयसिंह द्वितीय
मातामहाराणी जयवंताबाई
धर्मसनातन धर्म
महाराणा प्रताप का जन्म कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ था। महाराणा प्रताप की माता का नाम जयवंता बाई था, जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था। महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक गोगुन्दा में हुआ।
महाराणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल ११ शादियाँ की थी उनके पत्नियों और उनसे प्राप्त उनके पुत्रों पुत्रियों के नाम है:-
  1. महारानी अजब्धे पंवार :- अमरसिंह और भगवानदास
  2. अमरबाई राठौर :- नत्था
  3. शहमति बाई हाडा :-पुरा
  4. अलमदेबाई चौहान:- जसवंत सिंह
  5. रत्नावती बाई परमार :-माल,गज,क्लिंगु
  6. लखाबाई :- रायभाना
  7. जसोबाई चौहान :-कल्याणदास
  8. चंपाबाई जंथी :- कल्ला, सनवालदास और दुर्जन सिंह
  9. सोलनखिनीपुर बाई :- साशा और गोपाल
  10. फूलबाई राठौर :-चंदा और शिखा
  11. खीचर आशाबाई :- हत्थी और राम सिंह
महाराणा प्रताप ने भी अकबर की अधीनता को स्वीकार नहीं किया था। अकबर ने महाराणा प्रताप को समझाने के लिये क्रमश: चार शान्ति दूतों को भेजा।
  1. जलाल खान कोरची (सितम्बर १५७२)
  2. मानसिंह (१५७३)
  3. भगवान दास (सितम्बर–अक्टूबर १५७३)
  4. टोडरमल (दिसम्बर १५७३)

हल्दीघाटी का युद्ध


यह युद्ध १८ जून १५७६ ईस्वी में मेवाड़ तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में मेवाड़ की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे- हकीम खाँ सूरी।

इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया। इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूनीं ने किया। इस युद्ध को आसफ खाँ ने अप्रत्यक्ष रूप से जेहाद की संज्ञा दी। इस युद्ध में बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की। वहीं ग्वालियर नरेश 'राजा रामशाह तोमर' भी अपने तीन पुत्रों 'कुँवर शालीवाहन', 'कुँवर भवानी सिंह 'कुँवर प्रताप सिंह' और पौत्र बलभद्र सिंह एवं सैकडों वीर तोमर राजपूत योद्धाओं समेत चिरनिद्रा में सो गया। ,
इतिहासकार मानते हैं कि इस युद्ध में कोई विजय नहीं हुआ। पर देखा जाए तो इस युद्ध में महाराणा प्रताप सिंह विजय हुए। अकबर की विशाल सेना के सामने मुट्ठीभर राजपूत कितनी देर तक टिक पाते, पर एेसा कुछ नहीं हुआ, ये युद्ध पूरे एक दिन चला ओेैर राजपूतों ने मुग़लों के छक्के छुड़ा दिया थे और सबसे बड़ी बात यह है कि युद्ध आमने सामने लड़ा गया था। महाराणा की सेना ने मुगलों की सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था और मुगल सेना भागने लग गयी थी।

सफलता और अवसान

ई.पू. 1579 से 1585 तक पूर्व उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार और गुजरात के मुग़ल अधिकृत प्रदेशों में विद्रोह होने लगे थे और महाराणा भी एक के बाद एक गढ़ जीतते जा रहे थे अतः परिणामस्वरूप अकबर उस विद्रोह को दबाने में उल्झा रहा और मेवाड़ पर से मुगलो का दबाव कम हो गया। इस बात का लाभ उठाकर महाराणा ने ई.पू. 1585 में मेवाड़ मुक्ति प्रयत्नों को और भी तेज कर लिया। महाराणा की सेना ने मुगल चौकियों पर आक्रमण शुरू कर दिए और तुरंत ही उदयपूर समेत 36 महत्वपूर्ण स्थान पर फिर से महाराणा का अधिकार स्थापित हो गया। महाराणा प्रताप ने जिस समय सिंहासन ग्रहण किया , उस समय जितने मेवाड़ की भूमि पर उनका अधिकार था , पूर्ण रूप से उतने ही भूमि भाग पर अब उनकी सत्ता फिर से स्थापित हो गई थी। बारह वर्ष के संघर्ष के बाद भी अकबर उसमें कोई परिवर्तन न कर सका। और इस तरह महाराणा प्रताप समय की लंबी अवधि के संघर्ष के बाद मेवाड़ को मुक्त करने में सफल रहे और ये समय मेवाड़ के लिए एक स्वर्ण युग साबित हुआ। मेवाड़ पर लगा हुआ अकबर ग्रहण का अंत ई.पू. 1585 में हुआ। उसके बाद महाराणा प्रताप उनके राज्य की सुख-सुविधा में जुट गए,परंतु दुर्भाग्य से उसके ग्यारह वर्ष के बाद ही 19 जनवरी 1597 में अपनी नई राजधानी चावंड में उनकी मृत्यु हो गई।
महाराणा प्रताप सिंह के डर से अकबर अपनी राजधानी लाहौर लेकर चला गया और महाराणा के स्वर्ग सिधारने  के बाद अागरा ले आया।
'एक सच्चे राजपूत, शूरवीर, देशभक्त, योद्धा, मातृभूमि के रखवाले के रूप में महाराणा प्रताप दुनिया में सदैव के लिए अमर हो गए।

महाराणा प्रताप सिंह के मृत्यु पर अकबर की प्रतिक्रिया


अकबर महाराणा प्रताप का सबसे बड़ा शत्रु था, पर उनकी यह लड़ाई कोई व्यक्तिगत द्वेष का परिणाम नहीं थी, हालांकि अपने सिद्धांतों और मूल्यों की लड़ाई थी। एक वह था जो अपने क्रूर साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था , जब की एक तरफ ये थे जो अपनी भारत मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर रहे थे। महाराणा प्रताप की मृत्यु पर अकबर को बहुत ही दुःख हुआ क्योंकि ह्रदय से वो महाराणा प्रताप के गुणों का प्रशंसक था और अकबर जनता था की महाराणा जैसा वीर कोई नहीं है इस धरती पर। यह समाचार सुन अकबर रहस्यमय तरीके से मौन हो गया और उसकी आँख में आंसू आ गए।
महाराणा प्रताप के स्वर्गावसान के समय अकबर लाहौर में था और वहीं उसे सूचना मिली कि महाराणा प्रताप की मृत्यु हो गई है। अकबर की उस समय की मनोदशा पर अकबर के दरबारी दुरसा आढ़ा ने राजस्थानी छंद में जो विवरण लिखा वो कुछ इस तरह है:-
अस लेगो अणदाग पाग लेगो अणनामी
गो आडा गवड़ाय जीको बहतो घुरवामी
नवरोजे न गयो न गो आसतां नवल्ली
न गो झरोखा हेठ जेठ दुनियाण दहल्ली
गहलोत राणा जीती गयो दसण मूंद रसणा डसी
निसा मूक भरिया नैण तो मृत शाह प्रतापसी
अर्थात्
हे गेहलोत राणा प्रतापसिंघ तेरी मृत्यु पर शाह यानि सम्राट ने दांतों के बीच जीभ दबाई और निश्वास के साथ आंसू टपकाए। क्योंकि तूने कभी भी अपने घोड़ों पर मुगलिया दाग नहीं लगने दिया। तूने अपनी पगड़ी को किसी के आगे झुकाया नहीं, हालांकि तू अपना आडा यानि यश या राज्य तो गंवा गया लेकिन फिर भी तू अपने राज्य के धुरे को बांए कंधे से ही चलाता रहा। तेरी रानियां कभी नवरोजों में नहीं गईं और ना ही तू खुद आसतों यानि बादशाही डेरों में गया। तू कभी शाही झरोखे के नीचे नहीं खड़ा रहा और तेरा रौब दुनिया पर निरंतर बना रहा। इसलिए मैं कहता हूं कि तू सब तरह से जीत गया और बादशाह हार गया।
अपनी मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए अपना पूरा जीवन का बलिदान कर देने वाले ऐसे वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप और उनके स्वामिभक्त अश्व चेतक को शत-शत कोटि-कोटि प्रणाम।

फिल्म एवं साहित्य में

पहले पहल 1946 में जयंत देसाई के निर्देशन में महाराणा प्रताप नाम से श्वेत-श्याम फिल्म बनी थी। 2013 में सोनी टीवी ने 'भारत का वीर पुत्र – महाराणा प्रताप' नाम से धारावाहिक प्रसारित किया था जिसमें बाल कुंवर प्रताप का पात्र फैसल खान और महाराणा प्रताप का पात्र शरद मल्होत्रा ने निभाया था।

सन्दर्भ

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